प्राणायाम
पर बात करने से पहले योग पर थोड़ी प्रकाश डाल दी जाये.योग है क्या ?
पातंजल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृत्त
निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का पर अंकुश लगाना ही योग है .
वैसे
तो योग शब्द के दो अर्थ है पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से
नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा.योग एक ऐसा विज्ञानं है जो हमें जीवन जीने का तरीका बताता
है . इनके प्रमुख आठ अंग है (1) यम (2) नियम
(3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान
(8) समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने
उप अंग भी हैं। वर्तमान में
योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।यह
तीनो अंग अति महत्वपूर्ण है और इनका प्रयोग व्यापक रूप में निरोगी काया एवं
अध्यात्म के उच्च शिखर तक पहुचने में
प्रयोग होती है.

१-पद्मासन-पहले
आसन पर बैठ जाए अब धीरे से दाहिना पैर उठाकर धीरे से बाए पैर की जांघ पर रखिये और
इसी तरह बाया पैर उठाकर दाहिने पैर की जांघ पर रखिये .घुटने जमीं से सटे रहे एवं
दोनों हाथो को आप चाहे तो हथेली दोनों पैरो के घुटने पर सटा सकते है अथवा ज्ञान
मुद्रा अथवा मृत्युंजय मुद्रा बनाकर प्रयोग कर सकते है .इस आसन में आप पैरो को अदल
बदल भी सकते है .इसके कई लाभ है .भगवान्
शिव भी अपने योग स्वरुप में पद्मासन में ही ध्यानस्थ रहते है .इस आसन से शरीर दृढ
एवं मन ध्यान पर लगने लगती है इससे सभी प्रकार के अभीष्ट सिद्ध होते है विशेषकर
शारीरिक शुद्धि की बात की जाए तो इसमें ७२,००० नाडियो की शुद्धि हो जाती है .समाधी
भी इसी आसन से जल्द लगती है .योगी को जिन ४ मुख्य आसन बताये गये है उनमे इनका भी
स्थान है .यदि इस आसन को करते समय दातो की जड़ो में अपनी जिह्वा की नोक को लगाया
जाए तो अनेक प्रकार की बीमारिया दूर होने लग जाती है .यह योग विद्या की अति महत्वपूर्ण क्रिया है.इस आसन के कई उपभेद है
जैसे अर्धपद्मासन,बद्ध पद्मासन किन्तु हमें मुख्य क्रिया पर ध्यान देने की
आवश्यकता है .इस आसन पर योग व प्राणायम की क्रिया की जाए तो क्या कहना .किसी भी अभ्यास को जब आप
कर रहे है तो उसमे आपकी निरंतरता की नितांत आवश्यकता होती है एवं जबतक इसे ६ माह
तक भस्त्रिका ,कपालभाती, अनिलोमविलोम अथवा
नाड़ी शोधन प्राणायाम के साथ न की जाए तो इसका द्विगुणित फल आप भला कैसे देख
पाएंगे.इस आसन का सर्वाधिक असर हमारी नाभि के पीछे सूर्य चक्र पर पड़ता है जिससे
अधिक मात्र में शक्ति का उत्सर्जन होता है .इस अभ्यास में ज्यादा तेजी नही करनी
चाहिए नियमित अभ्यास से आप इसके परिणाम से निस्संदेह अस्चार्यचाकित रह जायेंगे.
२-सिद्धासन-पद्मासन
के बाद सिद्धासन का दूसरा स्थान है.कुछ योगी इन्हें प्रथम स्थान पर रखते है
.क्युकी उनकी दृष्टी में ध्यान की दृष्टी
से यह आसन सर्वोत्तम है .इस आसन के सिद्ध हो जाने पर बहुत सी सिद्धिया मिलने लग
जाती है .
विधि-सर्वप्रथम
दोनों पैर फैलाकर आसन पर बैठ जाए अब एक पैर को मोड़कर उसकी एडी को गुदा एवं अंडकोष
के बिच सिवन पर मजबूती से लगाये .तलुआ जांघ से लगा रहे.अब दुसरे पैर को मोड़कर उसकी
एडी लिंग के बिलकुल उपर हड्डी पर अच्छी तरह जमा दीजिये .तलुआ दुसरे पैर की जांघ से
सटा रहे और पंजा जांघ व पिंडली के बिच दबा रहे.इस बात का भी ध्यान रखे की एडिया
लिंग के ठीक उपर व निचे हड्डियों पर मजबूती से जमी रहे.इसके पश्चात ठोड़ी को कंठ के
निचे मजबूती से लगाकर जीभ को तालू में लगा दे और पलकों और आखो को न हिलाए ध्यान भ्रूमध्य
पर.इस आसन से शुशुमना नाडी जागृत होने लग जाती है व प्राण तत्त्व उधर्व गति को
प्राप्त होने से वीर्य का प्रवाह उधर्व्गामी बन जाती है .इस आसन को बहुत आसान न समझकर बल्कि इसे
आराम आराम से समझकर करनी चाहिए.कुछ लोगो के अनुसार बाए पैर की एडी गुदा पर रखनी
चाहिए गुदा पर रखने से मूलबंध दृढ होता है .आप चाहे तो इस प्रकार भी कर सकते
है.पहले इसे ५ मिनट से आरम्भ करे फिर बढ़ाते बढ़ाते ३,४,५,६,...९ घंटे इस प्रकार एक वर्ष में १२ घंटे के लगभग बैठने का
अभ्यास शुरू कर सकते है .इस प्रकार आप इस
गति से बढ़ सकते है .इसके लाभ तो बहुत सारे है किन्तु कुछ मुख्य लाभ यह है की वीर्य
रक्चा के लिए यह सर्वोत्तम आसन है .पेट के सभी विकारो को दूर कर ब्रह्मचर्य के साथ
साथ नाड़ी शुद्दी होने लग जाती है जिससे कुण्डलिनी शक्ति का मार्ग अति सुगम होने लगती है और शुशुमना जागृत होती है .इससे योगिक सिद्धि बहुत जल्दी मिलने के
आसार रहते है क्युकी यह शुषुप्त कुण्डलिनी को व नाडी शुद्धि बहुत जल्द करने लग
जाती है .यह मुक्ति के दरवाजे खोल देती है .योगीजन साधारणतया सिद्धासन के द्वारा
वीर्य को बचाकर मस्तिस्क तक ले जाते है जो उसे ओज व कान्ति में परिवर्तित करती है .विशेषकर यह आसन
योगिओ व साधको के लिए है गृहस्थ व्यक्ति को सुखासन का अभ्यास करना चाहिए.स्वप्नदोष
के रोगी को इस आसन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए.इस आसन से तो विद्यार्थी वर्गों के
लिए तो अति उत्तम है इससे मेधा शक्ति में प्रखरता आती है एवं पढाई याद भी रहने लग
जाती है .सिद्धासन के विषय में और क्या कहा जाए इससे तो उसके पाप नष्ट होते ही है
उसके साथ ही साथ निर्बीज समाधी सिद्ध होती है .मूलबंध,उद्दियांबंध,जालंधर बंध अपने
आप होने लगते है .
यह
पिरामिड नुमा आकृति बनती है जिससे उर्जा का केंद्रीयकरण तीनो कोणों से होकर एक जगह
स्थिर होने लग जाती है .इसका अर्थ यह हुआ की साधारण आसन में जहा हमे केवल लाभ
प्राप्ति साधारण रूप में होती है वही सिद्धासन के अभ्यास के द्वारा हम ३ गुने रफ़्तार
से आगे बढ़ने लगते है .
इसलिए
कहा गया है की सिद्धासन जैसा आसन नही ,केवली कुम्भक के जैसा प्राणायाम नही खेचरी
मुद्रा के जैसा अन्य मुद्रा नही और अनहद नाद जैसा कोई नाद नही.इस सम्बन्ध में
भविष्य में कुछ और विशेष तथ्य देने की कोशिश करूँगा .
Very Nice.
ReplyDeleteRahul Gaikwad
Mumbai
rahulking555@gmail.com